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छठ पर्व में डूबते सूरज को अर्घ्य
छठ पर्व में डूबते सूरज को अर्घ्य – श्रद्धा, शुद्धता और समर्पण का दिव्य संगम
सूर्य को समर्पित छठ पर्व भारतीय संस्कृति का ऐसा अनूठा पर्व है, जहाँ भक्ति और प्रकृति का संगम अद्भुत रूप में दिखाई देता है। इस पर्व में विशेष रूप से डूबते सूर्य को अर्घ्य देने की परंपरा अत्यंत पवित्र मानी गई है। यह अर्घ्य केवल धार्मिक कर्मकांड नहीं, बल्कि जीवन के गहरे दर्शन का प्रतीक है – जहाँ अस्त होते सूर्य में भी प्रकाश, सम्मान और कृतज्ञता देखने की दृष्टि सिखाई जाती है।
सामान्यतः मनुष्य उगते सूरज की पूजा करता है, क्योंकि वह नई शुरुआत, आशा और ऊर्जा का प्रतीक होता है। परंतु छठ पूजा में डूबते सूर्य को भी उतनी ही श्रद्धा से अर्घ्य दिया जाता है।
यह एक दुर्लभ परंपरा है, जो यह सिखाती है कि जीवन के हर चरण का सम्मान होना चाहिए, चाहे वह आरंभ हो या अंत।
डूबते सूर्य को अर्घ्य देना इस बात का प्रतीक है कि मनुष्य अपने जीवन के हर संध्या क्षण में भी प्रकृति और ईश्वर का आभार व्यक्त करे।
संध्या के समय जब सूर्य पश्चिम दिशा में ढलने लगता है, तब व्रती (व्रत करने वाला व्यक्ति) अपने परिवार और समाज के साथ घाट या नदी के तट पर पहुँचता है।
साफ-सुथरे वस्त्र धारण कर, व्रती जल में खड़ा होता है।
बाँस की सूप में ठेकुआ, केला, नारियल, गन्ना, नींबू, सिंगाड़ा, सुपारी, और दीप रखे जाते हैं।
जल में खड़े होकर व्रती सूर्य देव को जल अर्पित करता है, जिसे अर्घ्य देना कहा जाता है।
इसी दौरान छठी मैया के गीत गाए जाते हैं — जैसे “काँचहि बाँस के बहंगी, बहंगिया लचकत जाए” — जो इस पर्व की आत्मा हैं।
सूर्य जल में परावर्तित होता है, और उस पर जल अर्पित करने का अर्थ है – आत्मा को ब्रह्म से जोड़ना।
अर्घ्य का घड़ा और दीपक मानव शरीर और चेतना का प्रतीक हैं। दीपक के प्रकाश में सूर्य को अर्पण करना, आत्मा का दिव्यता से मिलन है।
यह क्षण संपूर्ण शुद्धता और आत्मसंयम का प्रतीक होता है – जहाँ व्यक्ति अपने अहंकार, इच्छाओं और दुःखों को सूर्य के समक्ष समर्पित कर देता है।
छठ पूजा में कोई पुजारी नहीं, कोई मूर्ति नहीं – केवल जल, सूर्य, और मानव की श्रद्धा।
यह पर्व सामूहिकता का उत्सव है।
घाट पर अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष, जाति-धर्म का भेद मिट जाता है। सब एक साथ सूर्य की उपासना में डूब जाते हैं।
छठ पर्व यह याद दिलाता है कि प्रकृति किसी का भेदभाव नहीं करती – वह सबको समान रूप से प्रकाश, जल और जीवन देती है।
संध्या के समय घाटों पर दीपों की पंक्तियाँ जल उठती हैं, व्रती जल में कमर-भर डूबकर सूर्य की अंतिम किरणों का स्वागत करता है।
चारों ओर लोकगीतों की धुनें गूंजती हैं, और डूबते सूर्य की लालिमा पानी में प्रतिबिंबित होती है।
यह दृश्य केवल धार्मिक नहीं, बल्कि सांसारिक सौंदर्य का शिखर होता है – जहाँ श्रद्धा, संगीत और प्रकृति एक साथ प्रकट होती हैं।
डूबते सूर्य को अर्घ्य देना यह सिखाता है कि जीवन में जब उजाला घटने लगे, तब भी कृतज्ञता बनी रहनी चाहिए।
यह आस्था का सबसे ऊँचा बिंदु है – जब मनुष्य बिना किसी इच्छा के केवल धन्यवाद कहता है।
छठ का यही भाव है – भक्ति में कोई माँग नहीं, केवल समर्पण।
डूबते सूर्य को अर्घ्य देना केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि एक दर्शन है –
जो हमें सिखाता है कि हर अंत में भी एक शुरुआत छिपी होती है,
हर अस्त में एक नए उदय की संभावना रहती है।
छठ पर्व इस सत्य का उत्सव है, जहाँ मनुष्य सूर्य की ओर देखकर कहता है —
"तुम डूबो, पर तुम्हारा प्रकाश हमारे भीतर जलता रहेगा।"
छठ पर्व… यानी वो पर्व जहाँ इंसान अपनी आत्मा तक को साफ़ कर लेता है। बाकी त्यौहारों में लोग दिखावे में व्यस्त रहते हैं, पर छठ में लोग सच्चे अर्थों में निस्वार्थ भक्ति करते हैं — बिना किसी पुजारी, बिना दिखावे के, बस सूर्य, जल और आस्था के साथ। चलिए, अब गहराई से समझिए इसे।
लोहंडा शब्द दरअसल लोकभाषा में “खरना” का ही दूसरा नाम है।
यह छठ पर्व का दूसरा दिन होता है और बहुत विशेष माना जाता है।
🔸 इस दिन क्या होता है:
दिनभर व्रत रखा जाता है — यानी व्रती (मुख्य उपासक) पूरे दिन अन्न और जल का त्याग करता है।
संध्या समय व्रती गंगा जल या किसी स्वच्छ जलाशय में स्नान कर, घर लौटकर खरना का प्रसाद बनाता है।
प्रसाद में होता है —
गुड़ और चावल की खीर (रसीया या लपसी)
गुड़ की रोटी या पूड़ी
तुलसी पत्ता चढ़ाया गया शुद्ध प्रसाद
फिर सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और खरना प्रसाद ग्रहण किया जाता है। यही खरना व्रती का पहला अन्न ग्रहण होता है, जो सूर्यदेव को अर्पित करने के बाद किया जाता है।
🔸 प्रतीकात्मक अर्थ:
दिनभर का उपवास मन, शरीर और वाणी की शुद्धि का प्रतीक है।
खरना का प्रसाद ग्रहण करना सूर्य की कृपा स्वीकार करना है।
व्रती के साथ पूरा परिवार और पड़ोसी भी प्रसाद लेते हैं, जिससे सामूहिक एकता और सौहार्द का भाव बढ़ता है।
पहला दिन — नहाय खाय:
घर की सफाई, नदी या तालाब में स्नान, और शुद्ध भोजन से शुरुआत।
दूसरा दिन — लोहंडा / खरना:
दिनभर का उपवास और शाम को खरना प्रसाद।
तीसरा दिन — संध्या अर्घ्य:
डूबते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है। घाट पर दीप, गीत और भक्ति का महासागर उमड़ता है।
चौथा दिन — उषा अर्घ्य:
प्रातः काल उगते सूर्य को अर्घ्य दिया जाता है और फिर व्रत का समापन होता है।
छठ पूजा सूर्य देव और छठी मइया को समर्पित है।
सूर्य देव को ऊर्जा, स्वास्थ्य, समृद्धि और दीर्घायु का प्रतीक माना गया है।
छठ पर्व में प्रकृति के पाँच तत्वों (जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश) का समन्वय दिखाई देता है।
यह त्यौहार शुद्धता, अनुशासन और आत्मसंयम का जीवंत उदाहरण है।
छठ पर्व का सबसे भावनात्मक पहलू है “श्रद्धा और मौन सेवा”।
कोई पुजारी नहीं, कोई मूर्ति नहीं, बस श्रद्धा और निष्ठा।
हर व्रती अपने घर की छत या घाट पर मिट्टी के चूल्हे पर प्रसाद पकाता है, मानो खुद धरती माता की रसोई में भोजन तैयार कर रहा हो।
अगर कहा जाए तो लोहंडा वह चरण है जहाँ मनुष्य की आस्था तप में बदलती है।
पहले दिन शुद्धि, दूसरे दिन तप, तीसरे दिन समर्पण, और चौथे दिन मुक्ति।
यही छठ पर्व की आत्मा है — सूर्य की रोशनी में मन की अंधेरी गुफाएँ भी उजियारा पाती हैं।